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कविता

कितने शून्य

संतोष कुमार चतुर्वेदी


एक अरब में कुल कितने शून्य होते हैं
एक उदासी में कितने
कितने एक बेवशी में

आभा से दमकते
एक जैसे रूप रंग आकार वाले
शून्य सारे
इनका भी एक आसमान
और अपनी रातों में चमकते ये सितारे
किए उजियारे

गिनो... ...ठीक से गिनो
क्योंकि गणना में छूटा हुआ एक भी शून्य
संख्या की सारी संरचना को ही ध्वस्त कर सकता है

अमूमन इकाई से करनी होगी शुरुआत
फिर दहाई और सैकड़ा की तंग गलियों से गुजरना होगा
तभी... ...तभी संभव होगा
कि बहके बिना पहुँच लिया जाय सही ठिकाने तक

हमारे सूरज चाँद
और इस पृथिवी तक के बारे में
शून्य वाली कहानी ही कही सुनी दोहराई जाती है

यहाँ तक कि ब्रह्मांड के अवतरित होने की ऋचा भी
इसी उद्गम से फूटती है

अगर कागज पर रेखा खींचो गोलाई में
तो उभर आएगा पूरे का पूरा शून्य
और अगर हाथ में ले लो
तो एक समूची गेंद
उछलने कूदने दौड़ने भागने के लिए हरदम तैयार
नाक नक्श में इतनी सादगी
कि पहचानने में कोई गलतफहमी नहीं हो सकती
दुनिया के किसी भी कोने में किसी भी व्यक्ति को
और जीवन में इतना जरूरी
कि वर्णमालाएँ तक शून्य बिना अधूरी

आदि न अंत
जैसे जीवन की साधना में जुटा हुआ वसंत
एक आश्वासन कि
इससे कम जिंदगी में और क्या हो सकता है भला
एक भरोसा
कि इसके बिना पूरी नहीं हो सकती
दुनिया की कोई भी गिनती

कहीं पर एक गोलाई भर उत्कीर्ण कर के देखो
इस आकृति में समा जाएगा सूरज अपने सौरमंडल समेत
इसमें अँट जाएगी धरती
अपनी हरियाली को लिए दिए
तब भी यकीन नहीं हो रहा अगर
तो किसी शून्य के भीतर
कुछ बिंदुओं को तरतीबवार रख दो
बन जाएगा जीता जागता चेहरा
या ठीक तुम्हारा ही प्रतिबिंब
या फिर संभव है
कि एक चक्के में तब्दील हो जाए यह
अपनी धुरी पर लगातार नाचते हुए
दुनिया की गाड़ी खींचते हुए

दरअसल
मील के जिस पत्थर पर
शून्य किलोमीटर के ठीक ऊपर
टँका होता है जिस शहर का नाम
ठीक वहीं आबाद होती है उसकी बस्ती
वहीं होती है चहल पहल
स्मृतियों की आवाजाही
प्रायः वहीं दिखाई देती है
हो सके तो गिनो
गिन कर बताओ सच्ची सच्ची
कि एक मनुष्य में कुल कितने शून्य होते हैं
कि कितने शून्यों से भरा होता है एक अंतराल

 


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